शिखर
December 14, 2025
सूर्य, अस्त तू क्यो होता है?
अच्छे भले इस जीवन को
तमस में यूँ क्यो धोता है?
जब शाम ढले पर्वत के शिखर पर
बातों की कटोरी ले आता हूँ-
मुंह फेर कर, जैसे भिक्षुक हूँ मैं,
सन्नाटे में तू क्यो सोता है?
जब सूक्ष्म जीव सूक्ष्म है
तो जीवन प्रदान तू क्यो करता है?
करना ही है अगर जीवंत मुझे,
तो मुंह फेर कर क्यो सोता है?
प्रभात फेरी की धुन के बीच
किरने तेरी तू क्यों बोता है-
जब गीत तुझे गाना ही नहीं है,
बोल से व्यथित तू क्यो होता है?
उदय तेरा यह अर्ध आध्यात्मिक,
मुझे नास्तिक बनाकर छोड़ेगा।
अब तेरा यह अनंत खेल
इस भक्त की भावना न मरोड़ेगा।
पर मन भी अंततः मन ही है,
कितना ही क्रोधित हो पाएगा,
नया दिन, वही शिखर
जा फिर खड़ा हो जाएगा।